जब मैं छोटा था तो पापा और मेरी आदतों, पसंदगी-नापसंदगी में कोई मेल नहीं था, पापा बाएँ तो मैं दायें वाला हाल था। पापा को सुबह जल्दी उठने की आदत थी; मुझे देर तक सोने का शौक था। पापा सवेरे उठ कर थोडी ही देर में हम सारे भाइयों को उठाने क लिए आवाज देने लग जाते थे। उठने की इच्छा तो तीनो भाइयों में से किसी की भी नही होती थी लेकिन हमारे घर का माहौल ऐसा नहीं था कि पापा की बात नहीं सुनी जाए। बात काटने का तो सवाल ही नही था, अधिक से अधिक थोडी देर तक अनसुना करने का नाटक किया जा सकता था। मजबूरन उठाना ही पड़ता था, भले ही रविवार का दिन हो और कहीं आने-जाने का कार्यक्रम भी न हो। सवेरे सवेरे उठ कर नहा धो कर हमें पापा के साथ पूजा पर बैठना पड़ता था। जाड़े के दिनों में सीमेंट की ठंडी फर्श पर हाफ-पैंट में बैठना कितना कष्टकारी होता है,यह वही बता सकता है जिसने यह कष्ट झेला है।
पापा को खाने में हरी सब्जियाँ पसंद थीं, मुझे हरी सब्जी का कोई शौक नहीं था। पापा शाकाहारी थे, मैं मांसाहारी; हालांकि हमारे घर में कभी भी मांसाहार पकाया नहीं गया है।
पढ़ते वक़्त मैं रेडियो पर गाने लगा दिया करता था, इस से मुझे कोई समस्या नहीं होती थी। पापा के ये पल्ले ही नहीं पड़ता था कि पढ़ते वक़्त कोई गाना कैसे सुन सकता है। जहाँ तक मुझे याद है, पापा ने सिर्फ़ दो फिल्में देखी थीं; उसमें से भी एक फ़िल्म वो बीच में से ही छोड़कर कर आ गए थे। मेरी तो फिल्मो में जैसे जान ही बसती थी। यों बसती थी. कहना ग़लत होगा, मैं अभी भी बहुत ध्यान लगा कर सड़ी से सड़ी फ़िल्म देख लेता हूँ।
जैसे जैसे हम तीनो भाई बड़े होते गए पापा अपने अनुशासन की पकड़ ढीली करते गए और हमें काफी आजादी देने लग गए।
समय बदला, मेरी पढ़ाई ख़त्म हुई। मैंने नौकरी शुरू की और कुछ दिनों में मेरी शादी भी हुई। आज मैं उम्र के उस मोड़ पर खड़ा हूँ जिस पर कभी मेरे पापा थे। मेरी दो बेटियाँ हैं; बड़ी बेटी ग्यारह साल की है और छोटी पाँच साल की है। मेरी छोटी बेटी ने अपने दादाजी को सिर्फ़ तस्वीरों में देखा है, लेकिन मैं उन्हें पापा की कहानियां सुनाता रहता हूँ।
बड़ी बेटी छठी क्लास में है, और छोटी प्री-स्कूल में। दोनों को सवेरे स्कूल के लिए जल्दी निकलना पड़ता है। मुझे याद नहीं है कोई सुबह ऐसी गुजरी हो जब उन्हें डांट न पड़ीं हो। रोज सुबह थोडी देर तक मैं उन्हें प्यार से उठाता हूँ; धीरे-धीरे आवाजें तेज होने लगती हैं। मैं तो बचपन में बिना कुछ कहे उठ जाया करता था, मेरी बेटियाँ बिना शोर-शराबे के नहीं उठतीं हैं।
किसी तरह हाथ-मुंह धोने के बाद जब वो स्कूली कपड़े पहन कर नीचे आती हैं तो फिर एक और जंग शुरू होती है खाने को लेकर। दोनों शाकाहारी हैं, और यहाँ स्कूल में उनके खाने के लायक कम ही सामान मिलता है। इसलिए दोनों खाना साथ में ले कर जाती हैं। उनके हिसाब से अगर खाने में रोज बिस्कुट और चॉकलेट दे दी जाए तो सबसे अच्छा; उस से उनके स्वास्थ्य पर पड़ने वाले असर से उनको कोई मतलब नहीं है। कैसे उनको कुछ स्वास्थ्यवर्द्धक खाना दिया जाए जो उनको पसंद भी आए, इस पर रोज सिर फुटौवल की नौबत आ जाती है।
शाम को जब वो घर आती हैं तो होमवर्क किस तरह ख़त्म हो, इसके लिए मैं उनके पीछे पड़ा रहता हूँ। मेरी बड़ी बेटी को मेरी आदत लग गई है, वो भी पढ़ते वक़्त गाने लगा दिया करती है, फर्क इतना है की वो टीवी पर गाने लगाती है, और उसका सारा ध्यान टीवी पर ही रहता है।
आज मैं सचमुच उसी मोड़ पर हूँ जिस पर पापा थे। कूल डैड बनने के मेरे सारे इरादों पर पानी फिर गया है, और मैं रुल डैड बन कर रह गया हूँ, बिल्कुल अपने पापा की तरह। मजे की बात यह है की मुझे इसका कोई दुःख नहीं है। मुझे पूरा यकीन है कि पापा भी, चाहे वो जहाँ भी हों, मेरी स्थिति पर चुटकी ले रहे होंगे।
04 November 2009
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Very true. This is called experience of life.
ReplyDeleteHistory repeats itself. Generation gap is an universal fact in a developing society.
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