12 November 2009

आप कौन सा वाद्य यन्त्र खेलते हैं?

ये उन दिनों की बात है, जब मेरी बड़ी बेटी पाँच साल की थी। मेरी पत्नी और वो इंडिया जा रहे थे, और उनकी flight अटलांटा से होकर थी। अटलांटा हवाई अड्डे पर एक बड़ा सा पियानो है, कभी कभी उसे बजाते हुए आदमी भी दिख जाता है। उस दिन एक आदमी था जोकि काफी प्यारी सी धुन बजा रहा था, हालाँकि धुन जानी पहचानी नहीं थी। मेरी बेटी भी उन दिनों पियानो बजाना सीख रही थी, और उसे अच्छी बुरी धुनों की पहचान हो गयी थी। मौका मिलते ही उसने मुझसे कहा, 'अच्छा खेल रहा है न, पापा?' एकबारगी तो मुझे समझ नहीं आया कि वो खेलने की बात तो कर रही है, लेकिन आसपास कोई भी कुछ भी खेलता हुआ नजर नहीं आ रहा था। फ़िर मुझे समझ में आया की वो पियानो बजाने वाले की बात कर रही थी। मैं अपनी हँसी रोक नहीं पाया, लेकिन मैंने उसे बताया कि वाद्य यन्त्र बजाये जाते हैं, खेले नहीं जाते हैं।

तब से लेकर अब तक में उसकी हिन्दी के ज्ञान में काफी बढोत्तरी हुई है, सामान्यतः वो हिन्दी सही सही और धारा-प्रवाह (बिना रुके) बोल लेती है। अब उसे ये भी समझ आ गयी है की अगर उसे कोई सही शब्द नही सूझ रहा होता है तो वो अपने से ज्यादा जानने वालों से पूछ लेती है, या फ़िर अंग्रेज़ी का ही शब्द बोल देती है। हिन्दी लिखना उसे अब तक नही आता, हालाँकि अक्षर जोड़ जोड़ कर वो थोड़ा थोड़ा पढ़ ज़रूर लेती है। मैं उसके सीमित हिन्दी ज्ञान से दुखी नहीं हूँ, बल्कि बहुत खुश हूँ। दिन के सोलह घंटों में से सिर्फ़ पाँच या छः घंटे वो घर पर गुजारती है, बाकी समय या तो स्कूल में या स्कूल के साथियों के साथ गुजारती है, जहाँ अंग्रेज़ी बोले बिना कोई चारा नहीं है।

माफ़ कीजियेगा, मैं विषय से भटक गया। मैं चला था कुछ और चर्चा करने, और लग गया अपनी बेटी की बातों में। मैं बात कर रहा था वाद्य यन्त्र खेलने की। यानी घटिया अनुवाद की। कुछ उदाहरण देता हूँ:

"दूसरी तरफ केन्द्र सरकार के अधिकारियों के एक वर्ग की चाल बेढंगी है। ऐसा लगता है कि वे गंभीर मामलों को भी ठंडे बस्ते में डाले रहते हैं।"
स्त्रोत: http://hindi.webdunia.com/news/news/national/0910/12/1091012110_1.html

"एक तरफ़ तो प्रधानमंत्री कहते हैं की सीबीआई बड़ी मछलियों को पकड़े, दूसरी तरफ़ सीबीआई, ईडी, डीआरआई छोटी मछलियों पर तो कार्रवाई करती हैं लेकिन शार्क मछलियाँ खुलेआम देश को लूट रही हैं। "
स्त्रोत: http://hindi.webdunia.com/news/news/national/0910/12/1091012110_1.html

अब आप बताईये की ये ठंडा बस्ता कैसा होता है? मैं तो जो बस्ता स्कूल ले जाया करता था वो ठंडा नहीं होता था। दरअसल ये अनुवाद है अंग्रेज़ी से 'cold storage' का। और शार्क मछलियाँ! ये तो पता था कि अगर पानी में मिल जाएँ तो दुम दबा कर भाग लेना चाहिए, लेकिन ये पता नहीं था कि आजकल शार्क मछलियाँ हमारे देश के शहरों में घूम-घूम कर देश को लूट रही हैं।

"दोपहर के समय जब यात्रियों का दबाब कम होगा, रेलवे अन्य गाडियों को भी इस ट्रैक पर चला सकता है"
स्त्रोत: http://www.amarujala.com/today/natnews.asp?nat=13khas2c.asp

समझ में नहीं आया कि ट्रेन में यात्रियों पर दबाब है, या यात्रियों का ट्रेन पर दबाब है, या फ़िर ट्रैक पर! शायद ज़नाब कहना चाहते हैं कि दोपहर में यात्रियों की संख्या कम होने पर
रेलवे अन्य गाडियों को भी इस ट्रैक पर चला सकता है। तो जो कहना चाहते हैं, वही कहिये न!

हिन्दी (एवम् अन्य भारतीय भाषाओं) की इस दुर्दशा की क्या वजह है? सच यह है कि हिन्दी समाचार एजेंसियों के द्वारा एकत्रित समाचारों का उपयोग कोई अखबार नहीं करता. विदेशी एजेंसियों से मिले समाचारों से ही भर जाता है उनका अखबार. और अगर हिन्दी का अख़बार है तो सिर्फ़ अंग्रेज़ी से अनुवाद ही तो करना है। आम के आम, गुठलियों के दाम। और अनुवाद करने वाले भी हिन्दी के ज्ञानी नही होते, वे तो बस वाद्य यन्त्र खेलना भर जानते हैं।

कौन है इसका जिम्मेवार? आप शायद कहेंगे कि अखबारों के मालिक. लेकिन मेरे हिसाब से तो हम सब ही इसके किए जिम्मेवार हैं। हम ने ही अंग्रेज़ी की इतनी शान बढ़ाई है कि आज वो हमारे सर चढ़ कर बोलती है, हम ने ही अपनी भाषाओँ को इतना नीचे गिराया है उन्हें छूने से भी हाथ गंदे हो जायेंगे ऐसा लगने लगा है। ये हम ही हैं जो इस बात में अपनी शान समझते हैं कि हमारे बच्चों का मातृभाषा ज्ञान या तो शून्य बराबर है, या फ़िर इतना ही है कि अपने नाना-नानी, दादा -दादी से नमस्ते बोल सकें।

तो अगर हमने ही इसकी जड़ें खोदी हैं, तो फ़िर शायद हमें ही उन जड़ों को फ़िर मजबूत करना होगा। क्या आप मेरा साथ देंगे? अगर आपकी हाँ है तो बोलिए जय भारत, जय भारती!

2 comments:

  1. आपकी बात बिलकुल सही है अलोक जी.
    हम अक्सर शब्दों का तो अनुवाद कर देते हैं लेकिन भावानुवाद से परहेज कर लेते हैं. शब्दों का अनुवाद एक मशीन भी कर सकता है लेकिन भावों को समझने के लिए संस्कृति का ज्ञान जरूरी है. क्या ही अच्छा हो यदि हम संस्कृति का अनुवाद कर सकते. कम से कम keep in touch को 'छूते रहो' तो नहीं ही कहते.
    ये तो हुई अनुवाद की बात. अब 'हिंदी की दुर्दशा' जैसे विषद विषय पर बहस करें तो अंत में पता चलेगा कि हम तो चाहते हैं हिंदी में बोलना लेकिन सिर्फ भाषा को ज़िंदा रखने की कवायद करने के लिए बोलना पड़े ऐसा बोलने से अच्छा है ना ही बोलें. हमें भाषा पर नाज़ होना चाहिए लेकिन अगर उसको ढोना पड़े तो मुझे नहीं लगता इसकी कोई जरूरत है. भाषा, संस्कृतियाँ, रहन-सहन आदि नदियों की तरह जरूरत के मुताबिक अपनी दिशा बदलती रहती हैं. वैसे भी अगर शब्द बदल जाएँ तो भाव नहीं बदलते.
    संभव है आज से कई दशकों के बाद हिंदी का स्वरुप बिलकुल बदल जाए और हम उसे वैसी स्थिति में ना पायें, जैसा हमने रश्मिरथी और कामायनी में देखा था, लेकिन अन्य कई भाषाओं से शब्द उधार लेकर अभिव्यक्ति की नयी नयी शैलियाँ जरूर विकसित हो जाएँगीं.
    अगर आज भारतेंदु और जयशंकर प्रसाद सरीखे हिंदी के महानायक भी जीवित होते तो संभव है अपनी जीविका के लिए वे भी उपन्यास ना लिखकर टी वी सीरीयल के लिए कथाओं की रचना करते.
    धन्यवाद.

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  2. हिन्दी मीडिया की दुर्दशा पर एक बेहतरीन article http://janatantra.com/2009/07/19/reality-of-hindi-media/

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